बिछड़ रहा था मगर मुड़ के देखता भी रहा
मैं मुस्कुराती रही मैं ने भी कमाल किया
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रूह की माँग है वो जिस्म का सामान नहीं
पूरी न अधूरी हूँ न कम-तर हूँ न बरतर
बहुत गहरी है उस की ख़ामुशी भी
मनाज़िर ख़ूब-सूरत हैं
नज़्म
मिरी ज़मीं पे लगी आप के नगर में लगी
ख़्वाब गिरवी रख दिए आँखों का सौदा कर दिया
अच्छा लगता है
अधूरे लफ़्ज़ थे आवाज़ ग़ैर-वाज़ेह थी
कोई नहीं है मेरे जैसा चारों ओर
दिखाई देता है जो कुछ कहीं वो ख़्वाब न हो
सुनती रही मैं सब के दुख ख़ामोशी से