बहुत गहरी है उस की ख़ामुशी भी
मैं अपने क़द को छोटा पा रही हूँ
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मैं ने पहुँचाया उसे जीत के हर ख़ाने में
नहीं समझी थी जो समझा रही हूँ
पहचान जिन से थी वो हवाले मिटा दिए
और कोई नहीं है उस के सिवा
कितने अच्छे लोग थे क्या रौनक़ें थीं उन के साथ
नज़्म
सुकून-ए-दिल के लिए इश्क़ तो बहाना था
आँखों में न ज़ुल्फ़ों में न रुख़्सार में देखें
यादों के सब रंग उड़ा कर तन्हा हूँ
ठेस कुछ ऐसी लगी है कि बिखरना है उसे
आख़िरी लफ़्ज़
मेरी बेटी चलना सीख गई