अधूरे लफ़्ज़ थे आवाज़ ग़ैर-वाज़ेह थी
दुआ को फिर भी नहीं देर कुछ असर में लगी
Mohsin Naqvi
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रात दरीचे तक आ कर रुक जाती है
हमारी नस्ल सँवरती है देख कर हम को
सुकून-ए-दिल के लिए इश्क़ तो बहाना था
रूह की माँग है वो जिस्म का सामान नहीं
जिन ख़्वाहिशों को देखती रहती थी ख़्वाब में
कितने अच्छे लोग थे क्या रौनक़ें थीं उन के साथ
सुनती रही मैं सब के दुख ख़ामोशी से
जाता है जो घरों को वो रस्ता बदल दिया
अच्छा लगता है
मकाँ बनाते हुए छत बहुत ज़रूरी है
यादों के सब रंग उड़ा कर तन्हा हूँ