बीत गए हैं कितने दिन
जब तुम ने ये मुझ से कहा था
तुम मुझ को अच्छी लगती हो
और मेरे हाथों पर तुम ने
एक वो लम्हा छोड़ दिया था
वो लम्हा जो अन-देखी ज़ंजीर की सूरत
रूह से लिपटा दिल में उतरा
ख़ून में तैर गया
आज उसी लम्हे को थामे
खड़ी हुई हूँ सीढ़ी पर
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कहो तो नाम मैं दे दूँ इसे मोहब्बत का
क़ुर्बतों में फ़ासले कुछ और हैं
सुन रहे हैं कान जो कहते हैं सब
सुनती रही मैं सब के दुख ख़ामोशी से
कौन ख़्वाहिश करे कि और जिए
ख़ुशबू है और धीमा सा दुख फैला है
क्या कहूँ उस से कि जो बात समझता ही नहीं
कब उस की फ़त्ह की ख़्वाहिश को जीत सकती थी
बिखर रहे थे हर इक सम्त काएनात के रंग
पहचान जिन से थी वो हवाले मिटा दिए
सुकून-ए-दिल के लिए इश्क़ तो बहाना था
भूल गई हूँ किस से मेरा नाता था