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कहो तो नाम मैं दे दूँ इसे मोहब्बत का - फ़ातिमा हसन कविता - Darsaal

कहो तो नाम मैं दे दूँ इसे मोहब्बत का

कहो तो नाम मैं दे दूँ इसे मोहब्बत का

जो इक अलाव है जलती हुई रिफ़ाक़त का

जिसे भी देखो चला जा रहा है तेज़ी से

अगरचे काम यहाँ कुछ नहीं है उजलत का

दिखाई देता है जो कुछ कहीं वो ख़्वाब न हो

जो सुन रही हूँ वो धोका न हो समाअत का

यक़ीन करने लगे लोग रुत बदलती है

मगर ये सच भी करिश्मा न हो ख़िताबत का

सँवारती रही घर को मगर ये भूल गई

कि मुख़्तसर है ये अर्सा यहाँ सुकूनत का

चलो कि इस में भी इक-आध काम कर डालें

जो मिल गया है ये लम्हा ज़रा सी मोहलत का

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