कभी तो हर्फ़-ए-दुआ यूँ ज़बाँ तलक आए
कभी तो हर्फ़-ए-दुआ यूँ ज़बाँ तलक आए
उतर के जिस की पज़ीराई को फ़लक आए
कम-अज़-कम इतने तो आईना-दार हों चेहरे
कि दिल के हाल की चेहरे पे भी झलक आए
तो फिर ये कौन सा रिश्ता है गर न उन्स कहूँ
जो अश्क मेरे तिरी आँख से छलक आए
सजा सजा के जो रक्खे थे सदियों सदियों ने
वो ख़्वाब ख़्वाब मनाज़िर पलक पलक आए
'नक़ीब' यूँ तिरे लहजे में बे-हिजाब हो फ़न
ग़ज़ल के दोश से आँचल ज़रा ढलक आए
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