मैं अपनी रूह लिए दर-ब-दर भटकता रहा
बदन से दूर मुकम्मल वजूद था मेरा
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हम इब्तिदा ही में पहुँचे थे इंतिहा को कभी
सुब्ह होती है तो दफ़्तर में बदल जाता है
इसी फ़ुतूर में कर्ब-ओ-बला से लिपटे हुए
ऐसी ख़ुशियाँ तो किताबों में मिलेंगी शायद
अदा हुआ न क़र्ज़ और वजूद ख़त्म हो गया
मैं उस की बातों में ग़म अपना भूल जाता मगर
सुराग़ भी न मिले अजनबी सदा के मुझे
इस तमाशे का सबब वर्ना कहाँ बाक़ी है
जो दूर रह के उड़ाता रहा मज़ाक़ मिरा
मैं जिस में रह न सका जी-हुज़ूरियों के सबब