सुब्ह होती है तो दफ़्तर में बदल जाता है
सुब्ह होती है तो दफ़्तर में बदल जाता है
ये मकाँ रात को फिर घर में बदल जाता है
अब तो हर शहर है इक शहर-ए-तिलिस्मी कि जहाँ
जो भी जाता है वो पत्थर में बदल जाता है
एक लम्हा भी ठहरता नहीं लम्हा कोई
पेश-ए-मंज़र पस-ए-मंज़र में बदल जाता है
नक़्श उभरता है उम्मीदों का फ़लक पर कोई
और फिर धुँद की चादर में बदल जाता है
बंद हो जाता है कूज़े में कभी दरिया भी
और कभी क़तरा समुंदर में बदल जाता है
अपने मफ़्हूम पे पड़ती नज़र जब उस की
लफ़्ज़ अचानक बुत-ए-शश्दर में बदल जाता है
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