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सबब थी फ़ितरत-ए-इंसाँ ख़राब मौसम का - फ़रियाद आज़र कविता - Darsaal

सबब थी फ़ितरत-ए-इंसाँ ख़राब मौसम का

सबब थी फ़ितरत-ए-इंसाँ ख़राब मौसम का

फ़रिश्ते झेल रहे हैं अज़ाब मौसम का

वो तिश्ना-लब भी फ़रेब-ए-नज़र में आएगा

उसे भी ढूँड ही लेगा सराब मौसम का

दरख़्त यूँ ही अगर सब्ज़ सब्ज़ कटते रहे

बदल न जाए ज़मीं पर निसाब मौसम का

मैं जिस में रह न सका जी-हुज़ूरियों के सबब

ये आदमी है उसी कामयाब मौसम का

इसी उमीद में जूही से भर गया आँगन

कि खिलने वाला है अब के गुलाब मौसम का

बहार हो गई फिर अपने-आप शर्मिंदा

किया था दिल ने भी वो इंतिख़ाब मौसम का

खुलीं जो नींद से आँखें हमारी याँ 'आज़र'

गुज़र चुका था ज़माना भी ख़्वाब मौसम का

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