आसमानों पे उड़ो ज़ेहन में रक्खो कि जो चीज़
ख़ाक से उठती है वो ख़ाक पे आ जाती है
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सर पे हर्फ़ आता है दस्तार पे हर्फ़ आता है
गली का पत्थर था मुझ में आया बिगाड़ ऐसा
इश्क़ हूँ जुरअत-ए-इज़हार भी कर सकता हूँ
सफ़-ए-मातम पे जो हम नाचने गाने लग जाएँ
गुँध के मिट्टी जो कभी चाक पे आ जाती है
वो अपनी ज़ात में गुम था नहीं खुला मेरे साथ
हाँ कभी रूह को नख़चीर नहीं कर सकता
हम वफ़ादार हैं और इस से ज़ियादा क्या हों
दर-ए-फ़क़ीर पे जो आए वो दुआ ले जाए
तू समझता है कि मैं कुछ भी नहीं तेरे बग़ैर
वो भी गुमराह हो गया होगा