कीसा-ए-गुल में बंद थी ख़ुशबू
कीसा-ए-गुल में बंद थी ख़ुशबू
किस क़दर ख़ुद-पसंद थी ख़ुशबू
सर-निगूँ था ग़ुरूर-ए-ग़ुंचा-ओ-गुल
सर-ब-सर सर-बुलंद थी ख़ुशबू
अहल-ए-गुलशन थे महव-ए-रामिश-ओ-रंग
हाँ मगर फ़िक्रमंद थी ख़ुशबू
उड़ गई आमद-ए-ख़िज़ाँ से क़ब्ल
वाक़ई अक़्ल-मंद थी ख़ुशबू
आन-ए-वाहिद में आ के लौट गई
आहुओं की ज़क़ंद थी ख़ुशबू
दफ़्तर-ए-गुलसिताँ था तूलानी
और बस हर्फ़-ए-चंद थी ख़ुशबू
मूजिब-ए-इश्क़ थी मगर 'फ़रताश'
आगही थी न पंद थी ख़ुशबू
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