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इश्क़ हूँ जुरअत-ए-इज़हार भी कर सकता हूँ - फ़रताश सय्यद कविता - Darsaal

इश्क़ हूँ जुरअत-ए-इज़हार भी कर सकता हूँ

इश्क़ हूँ जुरअत-ए-इज़हार भी कर सकता हूँ

ख़ुद को रुस्वा सर-ए-बाज़ार भी कर सकता हूँ

तू समझता है कि मैं कुछ भी नहीं तेरे बग़ैर

मैं तिरे प्यार से इंकार भी कर सकता हूँ

ग़ैर मुमकिन ही सही तुझ को भुलाना लेकिन

ये जो दरिया है इसे पार भी कर सकता हूँ

तू मिरी अम्न-पसंदी को ग़लत नाम न दे

वार सहता ही नहीं वार भी कर सकता हूँ

मय-कदा कार-ए-दिगर और जनाब-ए-वाइज़

ऐसी नेकी मैं गुनहगार भी कर सकता हूँ

दावरा मैं तिरी दुनिया में तो ख़ामोश रहा

पर सर-ए-हश्र मैं तकरार भी कर सकता हूँ

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