यूँ भी होता है कि अपने-आप आवाज़ देना पड़ती है
दुनिया बे-स्फिती की आँख से देख
ये तकवीन, ,ज़मान ज़मीनें,
मस्ती और लगन की लीला
इक बहलावा है
इस बहलावे में इक दस्तावेज़ है
जिस का अव्वल आख़िर
फटा हुआ है
दूधिया रौशन
शाह-राहों पर
कितने युग थे
जिन में ख़ामोशी के लम्बे लम्बे सकते हैं
बारिश और माटी का ज़िक्र नहीं
फिर भी हम ने
मअनी और इम्कान की बे-तरतीबी में
उधर उधर से
ज़िंदा रहने का सामान किया
ख़्वाबों के गदले पानी में मछली देख के
हर्फ़ बनाए
और चिकनी मिट्टी की मूरत पर
दो आँखें रक्खीं
घटती बढ़ती दुनियाओं तक
मस्ती और लगन की लीला में
अब हर्फ़ हमारे दिलों को रौशन रखते हैं
लेकिन जुरआ जुरआ
उम्रों के दालान में
अपने-आप को बे-ख़बरी से
भरना पड़ता है
नीली छत
ठंडी रखने को
तन-मन नीला करना पड़ता है!
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