उजलत में पशेमानी का तज़्किरा

हम कहीं साअत-ए-बे-बाल-ओ-परी

खोल के दम लेते हैं

रेग-ज़ारों से निकलते हैं

रवानी ले कर

और उतर जाते हैं

गदराए हुए पानी में

बस इसी पानी में है

अपनी हवस

अपने चलन का क़िस्सा

ये चलन

ख़्वाब-गह-हस्त से होता हुआ

काशाने तलक जाता है

जिस की दर्ज़ों से दुआ झाँकती है

और ख़िल्क़त है

कि ग़फ़लत-भरे पहरों में हवा माँगती है

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