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तिरे अद्ल के ऐवानों में - फर्रुख यार कविता - Darsaal

तिरे अद्ल के ऐवानों में

ढल गई रात

तिरी याद के सन्नाटों में

बुझ गई चाँद के हमराह वो दुनिया जिस का

अक्स आँखों में लिए

मैं ने थकन बाँधी थी

नीम घायल हैं वो शफ़्फ़ाफ़ इरादे जिन पर

कितनी मासूम तमन्नाओं ने लब्बैक कही

जाने किस शहर को आबाद किया है तू ने

धड़कनें भीगती पलकों से बंधी जाती हैं

ज़िंदगी अस्र-ए-हमा-गीर में बे-मअ'नी है

जाने किस पहर

तिरे अद्ल के ऐवानों में

नीम हमवार ज़मीं वालों की फ़रियाद सुनी जाएगी

अक्स जो एक समय क़ुर्ब में थे

दूर नज़र आते हैं

गर्म साँसों की मशक़्क़त से बदन

चूर नज़र आते हैं

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