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मालूम करो - फर्रुख यार कविता - Darsaal

मालूम करो

क्या उगला मोड़ विसाल का है

क्या उगला हुक्म धमाल का है

मालूम करो

मालूम करो वो मंज़िल चौथे कोस पे है

जिस मंज़िल पर इंकार-ए-दरून-ए-ज़ात-ए-अलम

एहसास-ए-बद दूर हो जाएगा

और पारा पारा जज़्बों की यकजाई से

इक़रार अमर हो जाएगा

जब उम्रों के तख़मीनों से

कुछ क़दमों पर

इक भीड़ लगेगी साँसों की

उन साँसों की

जो छन छन कर के गिरती हैं

बेताब समय के सीने पर

उस सीने पर

जिस सीने में कुछ चाँदी है कुछ सोना है

उन नस्लों का

जो हम दोनों के ध्यान में हैं

और दस्त-ए-शिफ़ा की सूरत हैं

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