झूट सच में कोई पहचान करे भी कैसे
जो हक़ीक़त का ही मेयार फ़साना ठहरा
Ahmad Faraz
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Jaun Eliya
Gulzar
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
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हर एक लफ़्ज़ में पोशीदा इक अलाव न रख
हिसार-ए-ज़ात से कट कर तो जी नहीं सकते
सिलसिले ख़्वाब के अश्कों से सँवरते कब हैं
मैं तो लम्हात की साज़िश का निशाना ठहरा
धूप छूती है बदन को जब 'शमीम'
ग़ज़लों में अब वो रंग न रानाई रह गई
अपने ही फ़न की आग में जलते रहे 'शमीम'
जो ख़ुद पे बैठे बिठाए ज़वाल ले आए
दर्द के चेहरे बदल जाते हैं क्यूँ
हैं राख राख मगर आज तक नहीं बिखरे
वक़्त इक मौज है आता है गुज़र जाता है