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वो अलग चुप है ख़ुद से शर्मा कर - फ़ारूक़ शफ़क़ कविता - Darsaal

वो अलग चुप है ख़ुद से शर्मा कर

वो अलग चुप है ख़ुद से शर्मा कर

क्या किया मैं ने हाथ फैला कर

फल हर इक डाल पर नहीं होते

संग हर डाल पर न फेंका कर

ताज़ा रखने की कोई सूरत सोच

सूखे लब पर ज़बाँ न फेरा कर

दश्त-ए-सूरज में क्या मिला हम को

रह गया रंग अपना सँवला कर

मिट न जाए कहीं वजूद तिरा

ख़ुद को फ़ुर्सत में छू के देखा कर

आइना हो चला है सूरज अब

है यही वक़्त सब को अंधा कर

एक हों दो किनारे दरिया के

कोई ऐसी सबील पैदा कर

कैसे दरवाज़े पर क़दम रख्खूँ

कोई लेटा है पाँव फैला कर

सूरतें ज़ेहन से न मिट जाएँ

भूले-भटके इधर भी निकला कर

सरसरी तौर पर जो बात हुई

उस ने पूछा उसी को दोहरा कर

ठहरे पानी में फेंक कर पत्थर

अपने साए को तू न रुस्वा कर

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