वो अलग चुप है ख़ुद से शर्मा कर
वो अलग चुप है ख़ुद से शर्मा कर
क्या किया मैं ने हाथ फैला कर
फल हर इक डाल पर नहीं होते
संग हर डाल पर न फेंका कर
ताज़ा रखने की कोई सूरत सोच
सूखे लब पर ज़बाँ न फेरा कर
दश्त-ए-सूरज में क्या मिला हम को
रह गया रंग अपना सँवला कर
मिट न जाए कहीं वजूद तिरा
ख़ुद को फ़ुर्सत में छू के देखा कर
आइना हो चला है सूरज अब
है यही वक़्त सब को अंधा कर
एक हों दो किनारे दरिया के
कोई ऐसी सबील पैदा कर
कैसे दरवाज़े पर क़दम रख्खूँ
कोई लेटा है पाँव फैला कर
सूरतें ज़ेहन से न मिट जाएँ
भूले-भटके इधर भी निकला कर
सरसरी तौर पर जो बात हुई
उस ने पूछा उसी को दोहरा कर
ठहरे पानी में फेंक कर पत्थर
अपने साए को तू न रुस्वा कर
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