रात काफ़ी लम्बी थी दूर तक था तन्हा मैं
रात काफ़ी लम्बी थी दूर तक था तन्हा मैं
इक ज़रा से रोग़न पर कितना जलता-बुझता मैं
सब निशान क़दमों के मिट गए थे साहिल से
किस के वास्ते आख़िर डूबता उभरता मैं
मेरा ही बदन लेकिन बूँद बूँद को तरसा
दस्त और सहरा पर अब्र बन के बरसा मैं
अध-जले से काग़ज़ पर जैसे हर्फ़ रौशन हों
उस की कोशिशों पर भी ज़ेहन से न उतरा मैं
दोनों शक्लों में अपने हाथ कुछ नहीं आया
कितनी बार सिमटा मैं कितनी बार फैला मैं
ज़िंदगी के आँगन में धूप ही नहीं उतरी
अपने सर्द कमरे से कितनी बार निकला मैं
आज तक कोई कश्ती इस तरफ़ नहीं आई
पानियों के घेरे में ऐसा हूँ जज़ीरा मैं
काटता था हर मंज़र दूसरे मनाज़िर को
कोई मंज़र आँखों में किस तरह से भरता मैं
(852) Peoples Rate This