मंज़र अजब था अश्कों को रोका नहीं गया
मंज़र अजब था अश्कों को रोका नहीं गया
हँसता हुआ जो आया था हँसता नहीं गया
इक बार यूँ ही देख लिया था उसे कहीं
फिर उस के बा'द शहर में देखा नहीं गया
थी जिस के दम से रौनक़-ए-महफ़िल हमा-हमी
दावत में उस ग़रीब को पूछा नहीं गया
सारी ख़ुदाई ख़ुद ही खिंची जाती थी उधर
मैं ख़ुद वहाँ गया मुझे भेजा नहीं गया
जो कुछ न देखता था 'शफ़क़' देखना पड़ा
घर ले के मुझ को शाम को रस्ता नहीं गया
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