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होने वाला था इक हादसा रह गया - फ़ारूक़ शफ़क़ कविता - Darsaal

होने वाला था इक हादसा रह गया

होने वाला था इक हादसा रह गया

कल का सब से बड़ा वाक़िआ रह गया

रात आँगन में उतरी नहीं चाँदनी

चाँद शाख़ों में उलझा हुआ रह गया

हम ने कह सुन लिया मुतमइन हो गए

और अब कहने सुनने को क्या रह गया

सुब्ह होगी कहानी बनेगी कोई

ज़िंदगी का यही मसअला रह गया

मैं ने नफ़रत की खाई पे पुल रख दिया

फिर भी टूटा हुआ सिलसिला रह गया

सब ड्रामे के किरदार घर चल दिए

सामने एक पर्दा पड़ा रह गया

ये भी तकलीफ़-देह इक सज़ा ही तो है

शाख़ में एक पत्ता हरा रह गया

मैं किसी के यहाँ वक़्त क्या काटता

अपना ही घर 'शफ़क़' ढूँढता रह गया

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