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बहुत धोका किया ख़ुद को मगर क्या कर लिया मैं ने - फ़ारूक़ शफ़क़ कविता - Darsaal

बहुत धोका किया ख़ुद को मगर क्या कर लिया मैं ने

बहुत धोका किया ख़ुद को मगर क्या कर लिया मैं ने

तमाशा मुझ को करना था तमाशा कर लिया मैं ने

यहाँ भी अब नई आबादियों का शोर सुनता हूँ

यहाँ से भी निकलने का इरादा कर लिया मैं ने

सफ़र में धूप की शिद्दत कहाँ तक झेलता आख़िर

तिरी यादों को ओढ़ा और साया कर लिया मैं ने

कोई अच्छा नहीं सब लोग इक जैसे हैं बस्ती में

नतीजा ये हुआ ख़ुद को अकेला कर लिया मैं ने

कोई मौसम हो कैसी ही फ़ज़ा हो ग़म नहीं होता

ज़माने वाला हर इक रंग पैदा कर लिया मैं ने

ये दुनिया अपने ढब की थी न दुनिया वाले अच्छे थे

मगर क्या कीजिए फिर भी गुज़ारा कर लिया मैं ने

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