सुना है लोग वहाँ मुझ से ख़ार खाते हैं
फ़साना आम जहाँ मेरी बेबसी का है
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संग-परस्तों की बस्ती में शीशा-गरों की ख़ैर नहीं है
इतनी ख़राब सूरत-ए-हालात भी नहीं
मौत
एक नज़्म जंगलों के नाम
मातम-ए-नीम-ए-शब
वही में हूँ वही ख़ाली मकाँ है
नींद क्यूँ नहीं आती
जुनूँ-आसार मौसम का पता कोई नहीं देगा
तेरी मर्ज़ी न दे सबात मुझे
हिसार-ए-ख़ौफ़-ओ-हिरास में है बुतान-ए-वहम-ओ-गुमाँ की बस्ती
अजीब रंग सा चेहरों पे बे-कसी का है
ए मरकज़-ए-ख़याल बिखरने लगा हूँ में