सितारे बोती रहीं नींद से तही आँखें
इधर ये हाल कि दामन भी तर नहीं होता
Faiz Ahmad Faiz
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तेज़ाब, आकार ख़ुश्बू का
संग-परस्तों की बस्ती में शीशा-गरों की ख़ैर नहीं है
अब फ़क़ीरी में कोई बात नहीं
पूरे क़द से मैं खड़ा हूँ सामने आएगा क्या
जूँही बाम-ओ-दर जागे
ग़म की चादर ओढ़ कर सोए थे क्या
बस्ती से दूर जा के कोई रो रहा है क्यूँ
में इक गाँव का शाएर हूँ
फिर पहाड़ों से उतर कर आएँगे
क़द्रों की हदें तोड़ नई तरह निकाल
नई बासी कोई ख़बर दे दे
अपनी ग़ज़ल को ख़ून का सैलाब ले गया