काँच के अल्फ़ाज़ काग़ज़ पर न रख
संग-ए-मअ'नी बन के टकराऊँगा मैं
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ये कैसी रुत आ गई जुनूँ की
यूँही कर लेते हैं औक़ात बसर अपना क्या
नई बासी कोई ख़बर दे दे
बचपन
और मैं चुप रहा
नींद क्यूँ नहीं आती
मौत
बस्ती से दूर जा के कोई रो रहा है क्यूँ
बहकी हुई रूहों को तसल्ली दे कर
जब भी तुम को सोचा है
में इक गाँव का शाएर हूँ