जुनूँ-आसार मौसम का पता कोई नहीं देगा
तुझे ऐ दश्त-ए-तन्हाई सदा कोई नहीं देगा
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वही में हूँ वही ख़ाली मकाँ है
संग-परस्तों की बस्ती में शीशा-गरों की ख़ैर नहीं है
ग़म की चादर ओढ़ कर सोए थे क्या
एक नज़्म जंगलों के नाम
मशवरा देने की कोशिश तो करो
ये कैसी रुत आ गई जुनूँ की
तेरी मर्ज़ी न दे सबात मुझे
काँच के अल्फ़ाज़ काग़ज़ पर न रख
बचपन
में इक गाँव का शाएर हूँ
बहकी हुई रूहों को तसल्ली दे कर
इतनी ख़राब सूरत-ए-हालात भी नहीं