बहकी हुई रूहों को तसल्ली दे कर
खोए हुए अज्साम की जन्नत हो जा
Javed Akhtar
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Habib Jalib
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अब फ़क़ीरी में कोई बात नहीं
मुझ से क्या पूछते हो नाम पता
संग-परस्तों की बस्ती में शीशा-गरों की ख़ैर नहीं है
वही मैं हूँ वही ख़ाली मकाँ है
और मैं चुप रहा
ए मरकज़-ए-ख़याल बिखरने लगा हूँ में
अजीब रंग सा चेहरों पे बे-कसी का है
ग़म की चादर ओढ़ कर सोए थे क्या
वही में हूँ वही ख़ाली मकाँ है
नींद क्यूँ नहीं आती
अपनी ग़ज़ल को ख़ून का सैलाब ले गया