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बचपन - फ़ारूक़ नाज़की कविता - Darsaal

बचपन

जब हल्की फुल्की बातों से

नग़्मों की तनाबें बनती थीं

जब छोटे छोटे लफ़्ज़ों से

अफ़्कार की शमएँ जलती थीं

हर चेहरा अपना चेहरा था

हर दर्पन अपना दर्पन था

जो घर था हमारा ही घर था

हर आँगन अपना आँगन था

जो बात लबों तक आती थी

वो दिल से नहीं कर आती थी

कानों में अमृत भरती थी

और दिल को छूकर जाती थी

वो वक़्त बहुत ही प्यारा था

वो लम्हे कितने मीठे थे

जिस वक़्त की उजली राहों पर

आग़ाज़ तो है अंजाम नहीं

जिस वक़्त की उजली राहों पर

आग़ाज़ तो है अंजाम नहीं

वो वक़्त कहाँ रू-पोश हुआ

जिस वक़्त का कोई नाम नहीं

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