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और मैं चुप रहा - फ़ारूक़ नाज़की कविता - Darsaal

और मैं चुप रहा

मेरे हाथों से मेरी चिता बन गई

मेरे काँधों पे मेरा जनाज़ा उठा

नोक-ए-मिज़्गाँ से क़िर्तास-ए-अय्याम पर

मेरे ख़ूँ से मिरा नाम लिक्खा गया

और मैं चुप रहा

मेरे बाज़ार कूचे मिरे बाम-ओ-दर

मेरी नादारियों से सजाए गए

मेरे अफ़्कार मेरी मता-ए-हुनर

मेरी महरूमियों से बसाए गए

और मैं चुप रहा

मेरी तक़दीर का जो भी ख़ाका बना

पीले मौसम के पत्तों पे लिक्खा गया

मेरी तस्वीर मुझ से छुपाई गई

मुझ को नादीदा ख़्वाबों में देखा गया

और मैं चुप रहा

मेरे अल्फ़ाज़ मअ'नी की तलवार से

सर-बुरीदा हुए गुनगुनाते रहे

मेरे नग़्मे गदाओं में बाँटे गए

बरगुज़ीदा हुए गुनगुनाते रहे

और मैं चुप रहा

मुझ से मेरी तमन्ना के गुल छीन कर

ज़र्द मौसम ने जश्न-ए-बहाराँ किया

बर्फ़ मेरे नशेमन पे आ के गिरी

धूप निकली तो इस को हिरासाँ किया

और मैं चुप रहा

मेरे सरसब्ज़ जंगल उजाड़े गए

मेरी झीलों में अजगर बसाए गए

कोह-ए-मारां की तक़्दीस लूटी गई

बे-हिसी के मक़ाबिर सजाए गए

और मैं चुप रहा

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