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पूरे क़द से मैं खड़ा हूँ सामने आएगा क्या - फ़ारूक़ नाज़की कविता - Darsaal

पूरे क़द से मैं खड़ा हूँ सामने आएगा क्या

पूरे क़द से मैं खड़ा हूँ सामने आएगा क्या

मैं तिरा साया नहीं हूँ मुझ को समझाएगा क्या

आँधियों पर उड़ रहा है जिन परिंदों का हुजूम

आसमाँ की वुसअतों से लौट कर आएगा क्या

इक नए मंज़र का ख़ाका आसमाँ पर क्यूँ नहीं

चाँद अपनी चाँदनी पर यूँही इतराएगा क्या

फ़स्ल-ए-गुल के बा'द पतझड़ यूँ तो इक मा'मूल है

ख़ौफ़ बन कर फिर दर-ओ-दीवार पर छाएगा क्या

जानिब-ए-शहर-ए-ग़ज़ालाँ फिर चली शाम-ए-फ़िराक़

दश्त की बे-ख़्वाबियों का राज़दाँ आएगा क्या

ख़ून की रोती सफ़ेदी बे-सदा साज़ों का शोर

बे-सर-ओ-पा गीत कोई बे-ज़बाँ गाएगा क्या

है ग़ज़ल आज़ाद गोया बे-दर-ओ-दीवार घर

हम को भी इस सिन्फ़-ए-बे-जा का हुनर आएगा क्या

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