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बस्ती से दूर जा के कोई रो रहा है क्यूँ - फ़ारूक़ नाज़की कविता - Darsaal

बस्ती से दूर जा के कोई रो रहा है क्यूँ

बस्ती से दूर जा के कोई रो रहा है क्यूँ

और पूछता है शहर तिरा सो रहा है क्यूँ

रुस्वाइयों का डर है न पुरशिश का ख़ौफ़ है

दामन से अपने दाग़-ए-वफ़ा धो रहा है क्यूँ

क्या लज़्ज़त-ए-गुनाह से दिल आश्ना नहीं

शर्मिंदा मेरे हाल पे तू हो रहा है क्यूँ

वो उन की दिल-फ़रेब दिल-आराइयाँ कहाँ

माज़ी के ख़ौफ़-ज़ार में अब खो रहा है क्यूँ

'फ़ारूक़'-जी का कब कोई पुर्सान-ए-हाल था

तन्हाइयों के ग़ार में दिल रो रहा है क्यूँ

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