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सब्ज़ आग़ाज़ से सुर्ख़ अंजाम तक - फ़ारूक़ मुज़्तर कविता - Darsaal

सब्ज़ आग़ाज़ से सुर्ख़ अंजाम तक

अलिफ़ से आदमी

अलिफ़ से आम है

धूप बे-रंग है

दर्द बे-नाम है

आँख कम-कोश है

आँख ख़ामोश है

धूप से दर्द तक

रंग से नाम तक

सब्ज़ आग़ाज़ से

सुर्ख़ अंजाम तक

सैद से दाम तक

एक आवाज़ है

सिलसिला सिलसिला

एक एहसास है

दायरा दायरा

दायरा दायरा

सिलसिला सिलसिला

एक तू क़ैद है

एक मैं क़ैद हूँ

एक तू दाम है

एक मैं दाम हूँ

एक तू सैद है

एक मैं सैद हूँ

सैद से दाम तक

रंग से नाम तक

सब्ज़ आग़ाज़ से

सुर्ख़ अंजाम तक

एक आवाज़ है

एक एहसास है

सिलसिला सिलसिला

दायरा दायरा

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