अल-जजहनी, आशुफ़्तगी आमादगी
रात भर काले सवालों के नगर में घूम फिर कर
सुब्ह अपने आप में जो लौट आया
एक बोसीदा इमारत का कोई कतबा है वो
और अब
यूँही अपने आप में सिमटा हुआ रहता है वो
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सोच भी उस दिन को जब तू ने मुझे सोचा न था
हर नए मोड़ धूप का सहरा
यूँ हुजरा-ए-ख़याल में बैठा हुआ हूँ मैं
तआ'क़ुब
क़ुर्बतें बढ़ गई निगाहों की
अंधा सफ़र
आँखों में मौज मौज कोई सोचने लगा
मगर इन आँखों में किस सुब्ह के हवाले थे
न पानियों का इज़्तिरार शहर में
अपनी आँखों के हिसारों से निकल कर देखना
मैं ताइर-ए-वजूद या बर्ग-ए-ख़याल था
कतबा