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उजले माथे पे नाम लिख रक्खें - फ़ारूक़ मुज़्तर कविता - Darsaal

उजले माथे पे नाम लिख रक्खें

उजले माथे पे नाम लिख रक्खें

ख़्वाहिशों का मक़ाम लिख रक्खें

फिर हवस को है हसरत-ए-परवाज़

आप दाना-ओ-दाम लिख रक्खें

वर्ना हम इस को भूल जाएँगे

सब्ज़ हर्फ़ों में नाम लिख रक्खें

जाने किस सम्त कल हवा ले जाए

लम्हा-ए-शाद-काम लिख रक्खें

अपने होने का कुछ यक़ीं कर लें

रेत पर नक़्श-ओ-नाम लिख रक्खें

शब को ठिठुरेंगे सब दर-ओ-दीवार

धूप कुछ अपने नाम लिख रक्खें

ज़र्दियाँ ओढ़ने लगा सूरज

नामा-ए-ख़ौफ़-ए-शाम लिख रक्खें

पीले पीले बदन हुआ मौसम

पीला पीला तमाम लिख रक्खें

आने वाले उदास नस्लों के

सिलसिला-वार नाम लिख रक्खें

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