क़ुर्बतें बढ़ गई निगाहों की
क़ुर्बतें बढ़ गई निगाहों की
अब हदें ख़त्म हैं लिबासों की
धूप रोके खड़ी है किस के लिए
ये सर-ए-रह क़तार पेड़ों की
और फैलेगा आग का दरिया
और झुलसेगी खाल चेहरों की
ख़ुद-कुशी का सफ़र भी सहल नहीं
भीड़ सी है लगी सवालों की
कौन ख़ुद में समो सका है कभी
वुसअतें ला-ज़वाल लम्हों की
कब से दोहरा रहा हूँ मैं 'मुज़्तर'
एक फ़हरिस्त चंद नामों की
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