मैं ताइर-ए-वजूद या बर्ग-ए-ख़याल था
मैं ताइर-ए-वजूद या बर्ग-ए-ख़याल था
बस इस क़दर है याद कि मैं डाल डाल था
लम्हों में मुझ को बाँट गया कोई काला हाथ
वर्ना मैं आप अपना तुलू-ओ-ज़वाल था
चेहरे खुली किताबों की मानिंद थे मगर
बे रौशनाई लिक्खे को पढ़ना मुहाल था
'मुज़्तर' हर आइने में था अक्स-ए-बहार बस
मैं अपनी आरज़ू से बहुत पाएमाल था
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