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बात में कुछ मगर बयान में कुछ - फ़ारूक़ इंजीनियर कविता - Darsaal

बात में कुछ मगर बयान में कुछ

बात में कुछ मगर बयान में कुछ

रंग बदला हर एक आन में कुछ

यूँ ही क़ाएम नहीं है ये दुनिया

लोग अच्छे हैं इस जहान में कुछ

मर्सिया हो गया चराग़ों का

जब भी लिक्खा हवा की शान में कुछ

क़त्ल होने हैं सब के सब किरदार

मोड़ ऐसे हैं दास्तान में कुछ

उस को देखा मिली पलक से पलक

जान सी आ गई है जान में कुछ

सिर्फ़ लुत्फ़-ए-सफ़र की बात नहीं

अब मज़ा भी कहाँ थकान में कुछ

सब समझता है अपने मतलब की

कोई बोले किसी ज़बान में कुछ

क्या भरोसा है उस का ऐ 'फ़ारूक़'

आन में कुछ है और आन में कुछ

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