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गुल-ओ-गुलज़ार गुहर चाँद सितारे बच्चे - फ़ारूक़ इंजीनियर कविता - Darsaal

गुल-ओ-गुलज़ार गुहर चाँद सितारे बच्चे

गुल-ओ-गुलज़ार गुहर चाँद सितारे बच्चे

रंग-ओ-बू नूर के पैकर हैं ये सारे बच्चे

आइने हैं कि दमकते हुए चेहरे इन के

ऐसे शफ़्फ़ाफ़ कि दरियाओं के धारे बच्चे

कितने मा'सूम के ये साँप पकड़ना चाहें

कितने भोले हैं कि छूते हैं शरारे बच्चे

आने वालों को बता देते हैं घर की बातें

कब समझते हैं ये आँखों के इशारे बच्चे

ख़ुद से दस-बीस बरस और बड़े लगते हैं

घर बनाते हुए दरिया के किनारे बच्चे

गाँव जाता हूँ तो चौपाल का इक बूढ़ा दरख़्त

बाहें फैला के ये कहता कि आ रे बच्चे

अब न वो खेल खिलौने न शरारत 'फ़ारूक़'

कितने ख़ामोश अकेले हैं हमारे बच्चे

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