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सुब्ह का धोका हुआ है शाम पर - फ़ारूक़ इंजीनियर कविता - Darsaal

सुब्ह का धोका हुआ है शाम पर

सुब्ह का धोका हुआ है शाम पर

चाँद को देखा अचानक बाम पर

जुज़ मिरे सूरज परिंदे आदमी

सब निकल जाते हैं अपने काम पर

बारयाबी के लिए जाएँ मगर

दिल ठिठक जाता है पहले गाम पर

पर लगे ख़ुश्बू को तेरे ज़िक्र से

मुस्कुराए फूल तेरे नाम पर

बे-ज़रूरत घर से निकलें और फिर

शय ख़रीदें कोई महँगे दाम पर

ख़ामुशी अच्छी है लेकिन इस क़दर

कुछ तो बोलें आप इस कोहराम पर

ऐ जुनूँ ये जी में आता है कभी

वक़्फ़ कर दें ख़ुद को तेरे नाम पर

आँख में 'फ़ारूक़' आँसू आ गए

क्या फ़साना आ गया अंजाम पर

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