आँख हो और कोई ख़्वाब न हो
आँख हो और कोई ख़्वाब न हो
नाज़िल ऐसा कहीं अज़ाब न हो
कुछ तो महफ़ूज़ रखिए सीने में
ज़िंदगानी खुली किताब न हो
सर्फ़ कीजे न इस क़दर ख़ुद को
लाख चाहो तो फिर हिसाब न हो
इस लिए काटता हूँ ये घड़ियाँ
वक़्त की चाल कामयाब न हो
गूँज कैसी है कोहसारों में
ये किसी चीख़ का जवाब न हो
क्या चमकता है तपते सहरा में
देख छू कर कहीं ये आब न हो
ये जलन पीठ में है क्यूँ 'फ़ारूक़'
पुश्त पर तेरी आफ़्ताब न हो
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