नदीम तारीख़-ए-फ़तह-ए-दानिश बस इतना लिख कर तमाम कर दे
कि शातिरान-ए-जहाँ ने आख़िर ख़ुद अपनी चालों से मात खाई
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कभी बे-नियाज़-ए-मख़्ज़न कभी दुश्मन-ए-किनारा
ब-रोज़-ए-हश्र मिरे साथ दिल-लगी ही तो है
सितारों से शब-ए-ग़म का तो दामन जगमगा उठ्ठा
यक़ीं मुझे भी है वो आएँगे ज़रूर मगर
जो रहा यूँ ही सलामत मिरा जज़्ब-ए-वालहाना
ग़म-ए-इश्क़ ही ने काटी ग़म-ए-इश्क़ की मुसीबत
तुम्हारे क़स्र-आज़ादी के मेमारों ने क्या पाया
दिल-ए-ईज़ा-तलब ले तेरा कहना कर लिया मैं ने
कोहसार का ख़ूगर है न पाबंद-ए-गुलिस्ताँ
मिरे नाख़ुदा न घबरा ये नज़र है अपनी अपनी
अल्लाह के बंदों की है दुनिया ही निराली