अल्लाह के बंदों की है दुनिया ही निराली
काँटे कोई बोता है तो उगते हैं गुलिस्ताँ
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मिरी ज़िंदगी का महवर यही सोज़-ओ-साज़-ए-हस्ती
ग़म-ए-इश्क़ ही ने काटी ग़म-ए-इश्क़ की मुसीबत
किसी की राह में 'फ़ारूक़' बर्बाद-ए-वफ़ा हो कर
जो रहा यूँ ही सलामत मिरा जज़्ब-ए-वालहाना
नदीम तारीख़-ए-फ़तह-ए-दानिश बस इतना लिख कर तमाम कर दे
मिरे नाख़ुदा न घबरा ये नज़र है अपनी अपनी
ब-रोज़-ए-हश्र मिरे साथ दिल-लगी ही तो है
ख़ुशी से फूलें न अहल-ए-सहरा अभी कहाँ से बहार आई
तुम्हारे क़स्र-आज़ादी के मेमारों ने क्या पाया
यक़ीं मुझे भी है वो आएँगे ज़रूर मगर
दिल-ए-ईज़ा-तलब ले तेरा कहना कर लिया मैं ने