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कभी बे-नियाज़-ए-मख़्ज़न कभी दुश्मन-ए-किनारा - फ़ारूक़ बाँसपारी कविता - Darsaal

कभी बे-नियाज़-ए-मख़्ज़न कभी दुश्मन-ए-किनारा

कभी बे-नियाज़-ए-मख़्ज़न कभी दुश्मन-ए-किनारा

कहीं तुझ को ले न डूबे तिरी ज़िंदगी का धारा

मिरी क़ुव्वत-ए-नज़र का कई रुख़ से इम्तिहाँ है

कभी उज़्र-ए-लन-तरानी कभी दावत-ए-नज़ारा

ग़म-ए-इश्क़ ही ने काटी ग़म-ए-इश्क़ की मुसीबत

इसी मौज ने डुबोया इसी मौज ने उभारा

तिरे ग़म की पर्दा-पोशी जो इसी की मुक़तज़ी है

तो क़सम है तेरे ग़म की मुझे हर ख़ुशी गवारा

दम-ए-सुब्ह-ए-नौ-बहाराँ जो कली चमन में चटकी

तो गुमाँ हुआ कि जैसे मुझे आप ने पुकारा

मिरे नाख़ुदा न घबरा ये नज़र है अपनी अपनी

तिरे सामने है तूफ़ाँ मिरे सामने किनारा

मिरी कश्ती-ए-तमन्ना कभी ख़ुश्कियों में डूबी

कभी बहर-ए-ग़म का तिनका मुझे दे गया सहारा

तिरा हक़ भी सर ब-ज़ानू मिरा कुफ़्र भी पशीमाँ

मुझे आगही ने लूटा तुझे ग़फ़लतों ने मारा

ये करम ये मेहरबानी तिरी फ़ारूक़-ए-हज़ीं पर

ये गिला है क्यूँ न बख़्शा मुझे शुक्रिये का यारा

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