तमाम शहर में उस जैसा ख़स्ता-हाल न था
तमाम शहर में उस जैसा ख़स्ता-हाल न था
मगर वो शख़्स कि फिर भी कोई मलाल न था
ये और बात मैं अपनी अना में क़ैद रहा
वगर्ना उस का पिघलना तो कुछ मुहाल न था
बिछड़ गया है तो ये कह के दिल को बहलाऊँ
वजूद उस का मिरे हक़ में नेक-फ़ाल न था
समझ रहा था मुहाफ़िज़ जिसे मैं बरसों से
मुझी को क़त्ल करेगा ये एहतिमाल न था
सिमट गई है सभी के ख़ुलूस की चादर
ये जज़्बा पहले तो इस दर्जा पाएमाल न था
ख़मोश सुनते रहे सब अमीर-ए-शहर का हुक्म
किसी के लब पे कोई हर्फ़-ए-इश्तिआ'ल न था
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