ख़ुदा करे कि ये मिट्टी बिखर भी जाए अब
ख़ुदा करे कि ये मिट्टी बिखर भी जाए अब
चढ़ा हुआ है जो दरिया उतर भी जाए अब
ये रोज़ रोज़ का मिलना बिछड़ना खलता है
वो मेरी रूह के अंदर उतर भी जाए अब
वहाँ वो फूल सा चेहरा है मुंतज़र उस का
कहो ये शाइर-ए-आवरा घर भी जाए अब
मैं अपने-आप को कब तक यूँही समेटे फिरूँ
चले वो आँधी कि सब कुछ बिखर भी जाए अब
उसी की वज्ह से सारे वबाल हैं 'फ़ारूक़'
बदन का क़र्ज़ अदा हो ये सर भी जाए अब
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