सब्ज़ मौसम की रिफ़ाक़त उस का कारोबार है

सब्ज़ मौसम की रिफ़ाक़त उस का कारोबार है

पेड़ कब सूखे हुए पत्तों का हिस्से-दार है

फिर महाजन बाँट लेंगे अपनी सारी खेतियाँ

क़र्ज़ की फ़सलों पे जीना किस क़दर दुश्वार है

एहतियात-ओ-ख़ौफ़ वाले डूबते हैं बेशतर

जिन को है ख़ुद पर भरोसा वो नदी के पार है

मुतमइन बैठे हो तुम ने ये भी सोचा है कभी

जिस का साया सर पे है वो रेत की दीवार है

आग का लश्कर है सफ़ बाँधे हमारे सामने

क्या करें हम हाथ में तो मोम की तलवार है

पत्थरों को शहर के रहती है मौक़ा' की तलाश

काँच के पैकर में रहना किस क़दर दुश्वार है

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