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न-जाने कितने लहजे और कितने रंग बदलेगा - फ़ारूक़ अंजुम कविता - Darsaal

न-जाने कितने लहजे और कितने रंग बदलेगा

न-जाने कितने लहजे और कितने रंग बदलेगा

वो अपने हक़ में ही सारे उसूल-ए-जंग बदलेगा

ख़ला में तैरते मस्कन रिहाइश के लिए होंगे

ये मुस्तक़बिल मिरा तहज़ीब-ए-ख़िश्त-ओ-संग बदलेगा

दर-ओ-दीवार क्या जानें खुला-पन आसमानों का

कुशादा-दिल वही होगा जो ज़ेहन-ए-तंग बदलेगा

बढ़ाएगा वो अपने क़द को बाँसों पर खड़े हो कर

कभी तारीख़ बदलेगा कभी फ़रहंग बदलेगा

अमीर-ए-शहर ने हम को सगान-ए-शहर समझा है

वो अपना काम रोकेगा न अपना ढंग बदलेगा

बहुत छोटा सही ये दिल मगर 'अंजुम' ये मुमकिन है

तवाज़ुन इश्क़ का अब तो यही पासंग बदलेगा

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