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जो बैठो सोचने हर ज़ख़्म-ए-दिल कसकता है - फ़ारूक़ अंजुम कविता - Darsaal

जो बैठो सोचने हर ज़ख़्म-ए-दिल कसकता है

जो बैठो सोचने हर ज़ख़्म-ए-दिल कसकता है

ग़ज़ल कहो तो क़लम से लहू टपकता है

मैं अब भी रोता हूँ महरूमियों पे बचपन की

खिलौने देख के दिल आज भी हुमकता है

फ़ज़ा में ख़ौफ़-ए-हवा बोलने नहीं देता

ज़मीं पे आ के परिंदा बहुत चहकता है

तुम्हारा लहजा तो दरिया है बहते पानी का

ये आग बन के समुंदर में क्यूँ भड़कता है

दिल-ओ-दिमाग़ के सब तार बजने लगते हैं

नक़ाब चेहरा-ए-फ़ितरत से जब सरकता है

अमीर-ए-शहर बनाया गया है जिस दिन से

हमारे घाव सितमगर बहुत नमकता है

चमकने लगते हैं 'अंजुम' तुम्हारी यादों के

वो आसमान पे जब रौशनी छिड़कता है

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