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जब भी मिला वो टूट के हम से मिला तो है - फ़ारूक़ अंजुम कविता - Darsaal

जब भी मिला वो टूट के हम से मिला तो है

जब भी मिला वो टूट के हम से मिला तो है

ज़ाहिर है इस ख़ुलूस में कुछ मुद्दआ तो है

उस को नया मिज़ाज नया ज़ेहन चाहिए

बच्चा ज़बाँ चलाता नहीं सोचता तो है

क्या मुंसिफ़ी है आप की ख़ुद देख लीजिए

इंसाफ़-ए-शहर शहर-ए-तमाशा बना तो है

धब्बे लहू के हम को बता देंगे रास्ता

शायद किसी के पाँव में काँटा चुभा तो है

मंज़िल की जुस्तुजू में अकेले नहीं हैं हम

हमराह तो नहीं है तिरा नक़्श-ए-पा तो है

गो अम्न हो गया है वहाँ क़त्ल-ओ-ख़ूँ के बा'द

दरवाज़ा साज़िशों का अभी तक खुला तो है

तहज़ीब के लिबादे में सब बे-लिबास हैं

'अंजुम' तिरे बदन पे दरीदा क़बा तो है

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