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अब धूप मुक़द्दर हुई छप्पर न मिलेगा - फ़ारूक़ अंजुम कविता - Darsaal

अब धूप मुक़द्दर हुई छप्पर न मिलेगा

अब धूप मुक़द्दर हुई छप्पर न मिलेगा

हम ख़ाना-ब-दोशों को कहीं घर न मिलेगा

आवारा तमन्नाओं को गर सम्त न दोगे

भटकी हुई उम्मत को पयम्बर न मिलेगा

सूरज ही नज़र आएगा नेज़े पे हमेशा

सच्चाई के शानों पे कभी सर न मिलेगा

अल्फ़ाज़ मसाइल के शरारों से भरे हैं

ग़ज़लों में मिरी हुस्न का पैकर न मिलेगा

हारोगे जो हिम्मत तो डुबो देगा समुंदर

साहिल तुम्हें कश्ती से उतर कर न मिलेगा

उस बाग़ में खिलते हैं अभी झुलसे हुए फूल

उस बाग़ में ख़ुश्बू को अभी घर न मिलेगा

ये सोच के आया है तिरे शहर में 'अंजुम'

आईनों के इस शहर में पत्थर न मिलेगा

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